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Wednesday, 17 June 2020

1857 के विद्रोह में बाबू कुंवर सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों के भी छक्के छुड़ा दिए थे, इस हार से अंग्रेजी हुकूमत में खलबली मच गई थी

गलवान घाटी में 16 बिहार रेजिमेंट के अधिकारी कर्नल संतोष बाबू और भारतीय जवानों की शहादत की खबर से दानापुर छावनी थोड़ी देर के लिए सकते में तो आई मगर जल्द ही अपने स्लोगन ‘कर्म ही धर्म है’ की ताकत से अपने गम को गर्व में तब्दील करने लगी। कौन, कहां का, कितना, इन सबके बीच आपसी बतकही की यह लाइन ज्यादा मजबूत हो गई कि ‘बिहार रेजिमेंट के वीर कभी अपनी जान की परवाह नहीं करते; देश पर कुर्बान होना उनके खून में है।’

कई युद्धों में अहम भूमिका

1944 में जापानी सेना के भारत के पूर्वी तट पर आक्रमण का सामना करने के लिए 1 बिहार रेजिमेंट को लुशाई ब्रिगेड में शामिल कर इम्फाल भेजा गया। सैनिकों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए हाका और गैंगा पहाड़ियों को जापानी सैनिकों के कब्जे से मुक्त कराया। इसकी याद में दानापुर स्थित बिहार रेजिमेंटल सेंटर में हाका और गैंगा द्वार बना हुआ है।

1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध में रेजीमेंट के सैनिकों ने वीरता दिखाई। 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान बिहार रेजीमेंट की पहली बटालियन ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुये अतिदुर्गम परिस्थितियों में बटालिक सेक्टर में दुश्मनों के कब्जे से पोस्टों को मुक्त कराया। प्वाइंट 4268 और जुबेर ओपी पर पुनः कब्जा जमाया।

युद्ध के दौरान प्रथम बिहार के एक अधिकारी और आठ जवान शहीद हुए। प्रथम बिहार को बैटल ऑनर बटालिक तथा थिएटर ऑनर कारगिल का सम्मान दिया गया।

बिहार रेजिमेंट को मिले पदक

मिलिट्री क्रॉस (स्वतंत्रता पूर्व)- 6, अशोक चक्र 3, महावीर चक्र - 2, कीर्ति चक्र - 13, वीर चक्र - 15, शौर्य चक्र - 45

1758 में शुरू हुई थी योद्धाओं की वीर गाथा

15 सितम्बर 1941 को 11वीं और 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट को मिलाकर जमशेदपुर में बिहार रेजिमेंट की पहली बटालियन बनी। युद्ध का नारा-’बजरंग बली की जय।’ आगरा में 1 दिसम्बर 1942 को बिहार रेजिमेंट की दूसरीबटालियन बनी। 1945 में आगरा में बिहार रेजिमेंटल सेंटर स्थापित किया गया।

2 मार्च 1949 को बिहार रेजिमेंटल सेंटर और प्रशिक्षण केंद्र को दानापुर मे स्थानांतरित किया गया। हालांकि, बिहार रेजिमेंट के योद्धाओं की वीरगाथा 1758 में ही शुरू हुई थी। अप्रैल 1758 में तीसरी बटालियन की पटना में हुई स्थापना के बाद से बिहार के जवानों ने अपनी वीरता की कहानी लिखनी शुरू कर दी थी।

कैप्टन टर्नर इस बटालियन की कमान संभालने वाले पहले अधिकारी थे। अंग्रेजों के कब्जे के बाद जून 1763 में मीर कासिम ने पटना पर हमला बोला। बिहारी रेजिमेंट की तीसरी बटालियन के चंद सैनिकों ने मीर कासिम की विशाल सेना को पीछे धकेल दिया। अंग्रेजी सेना द्वारा मदद नहीं मिलने के चलते मीर कासिम की सेना विजयी रही।

अंग्रेजों की तीन बटालियन समाप्त हो गई। बंगाल, बिहार और ओडिशापुनः राज्य स्थापित करने के लिए बिहारी सैनिकों को लेकर अंग्रेजों ने 6 ठी, 8 वीं और 9 वीं बटालियन बनाई। इन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले की कई लड़ाइयों में अपनी वीरता का लोहा मनवाया।

बाबू कुंवर सिंह का साथ दिया
जुलाई 1857 में दानापुर स्थित 7वीं और 8वीं रेजिमेंट के सैनिकों ने विद्रोह का बिगुल फूंकते हुए अंग्रेजों पर गोलियां बरसायीं। हथियार और ध्वज लेकर सैनिक जगदीशपुर चले आये और बाबू कुंवर सिंह के साथ शामिल हो गए। इन सैनिकों के साथ मिलकर बाबू कुंवर सिंह ने आरा पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों की सेना को शिकस्त दे आरा पर कब्जा कर लिया।

इस हार से अंग्रेजी हुकूमत में खलबली मच गयी। हालाँकि युद्ध के दौरान लगी गोलियों के घाव से बाबू कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई। बिहारी सैनिकों के शौर्य से अंग्रेज इतने डर गए की 12 को छोड़ कर सभी यूनिटें भंग कर दी। 1941 तक अंग्रेज बिहारी सैनिकों को लेकर एक भी बटालियन बनाने की हिम्मत नहीं जुटा सके थे।



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1999 में कारगिल युद्ध के दौरान बिहार रेजीमेंट की पहली बटालियन ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुये अतिदुर्गम परिस्थितियों में बटालिक सेक्टर में दुश्मनों के कब्जे से पोस्टों को मुक्त कराया। -फाइल फोटो


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